मुद्दतों में घर हमारे आज यार आ ही गया
ज़ुल्म करता था मगर ज़ालिम को प्यार आ ही गया
हिज्र की रातें कटीं तारे गिने जागा किए
वस्ल के लम्हे मिले आख़िर क़रार आ ही गया
वहम थे मेरी तरफ़ से बद-गुमानी थी उन्हें
मेरी फ़ितरत देख के अब ए'तिबार आ ही गया
मैं ने माना आरज़ी हैं वस्ल की घड़ियाँ मगर
चंद लम्हों के लिए दौर-ए-बहार आ ही गया
हम को पीने से ग़रज़ क्या ये शराब-ए-ज़ाहिरी
इन की नज़रें जब उठीं मुझ को ख़ुमार आ ही गया
ऐ 'निज़ामी' दफ़अ'तन उन की निगाहें उठ गईं
प्यार वो करते न थे बे-इख़्तियार आ ही गया
ग़ज़ल
मुद्दतों में घर हमारे आज यार आ ही गया
बाबू सि द्दीक़ निज़ामी