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मुद्दतों जो रहे बहारों में | शाही शायरी
muddaton jo rahe bahaaron mein

ग़ज़ल

मुद्दतों जो रहे बहारों में

अख्तर सईदी

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मुद्दतों जो रहे बहारों में
आज वो घिर गए हैं काँटों में

मैं कि सहरा-नवर्द हूँ लेकिन
परवरिश चाहता हूँ फूलों में

अक्स तेरा दिखाई देता है
बहते पानी की नरम लहरों में

खुल गए ख़्वाहिशों के दरवाज़े
फिर भी कोई नहीं है बाँहों में

जो महकते हैं ख़ुशबुओं की तरह
लम्स तेरा है उन गुलाबों में

कार-फ़रमा दिखाई देता है
मेरा एहसास मेरे जज़्बों में

आज हम से बिछड़ गया 'अख़्तर'
तज़्किरा हो रहा था लोगों में