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मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा | शाही शायरी
muddaten ho gai hota nahin phera tera

ग़ज़ल

मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा

नातिक़ गुलावठी

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मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
ताइर-ए-होश कहाँ अब है बसेरा तेरा

छावनी डाल के दुनिया में रहेगा कब तक
ख़ेमे रह जाएँगे उठ जाएगा डेरा तेरा

रहती है शम्स-ओ-क़मर को तिरे साए की तलाश
रौशनी ढूँढती फिरती है अंधेरा तेरा

खाए जाती है अभी शोला-मिज़ाजी ऐ शम्अ'
दिन से पहले हुआ जाता है सवेरा तेरा

फाड़ कर फेंकते हैं जामा-ए-हस्ती को समेट
ले जुनूँ हम ने ये सामान बिखेरा तेरा

मैं ही तेरा हूँ तो फिर क्या कहूँ मेरा क्या है
तू ही मेरा है तो फिर किस लिए मेरा तेरा

देखना 'नातिक़'-ए-शोरीदा को फेरी वाले
कूचा-ए-यार में हो अब के जो फेरा तेरा