EN اردو
मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते | शाही शायरी
muddaten ho gai hain chup rahte

ग़ज़ल

मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते

महशर काज़िम हुसैन लखनवी

;

मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते

जल गया ख़ुश्क हो के दामन-ए-दिल
अश्क आँखों से और क्या बहते

बात की और मुँह को आया जिगर
इस से बेहतर यही था चुप रहते

हम को जल्दी ने मौत की मारा
और जीते तो और ग़म सहते

सब ही सुनते तुम्हारी ऐ 'महशर'
कोई कहने की बात अगर कहते