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मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़ | शाही शायरी
muddat ho gai saz-e-mohabbat khol de ab ye raaz

ग़ज़ल

मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़

जगन्नाथ आज़ाद

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मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़
वो मेरी आवाज़ हैं बाँहों में उन की आवाज़

कितनी मनाज़िल तय कर आया मेरा शौक़-ए-नियाज़
ऐ नज़रों से छुपने वाले अब तो दे आवाज़

क्यूँ हर गाम पे मेरा दिल है सज्दों पे मजबूर
क्या नज़दीक कहीं है तेरी जल्वा-गाह-ए-नाज़

अस्ल में एक ही कैफ़िय्यत की दो तस्वीरें हैं
तेरा किब्र-ओ-नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़