मुब्तला एक बुत का होता हूँ
आज ईमान अपना खोता हूँ
तेग़-ए-अबरू के तीर इश्क़ में यार
जान से अपनी हाथ धोता हूँ
जान लेगी ये मुफ़्त की बेगार
बार-ए-रंज-ए-फ़िराक़ ढोता हूँ
ग़ोते खाता हूँ बहर-ए-उल्फ़त में
हाल पर अपने आप रोता हूँ
एक झूटे के वस्फ़-ए-दंदाँ में
सच्चे मोती सदा पिरोता हूँ
दिल लगाता हूँ उन की मिज़्गाँ से
अपने हक़ में ये काँटे बोता हूँ
ग़म में इक माह-वश के अश्कों से
दामन-ए-आसमाँ भिगोता हूँ
बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता का हूँ दिल-ए-बेदार
कौन शब ऐ 'वक़ार' सोता हूँ
ग़ज़ल
मुब्तला एक बुत का होता हूँ
किशन कुमार वक़ार

