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मुब्तला एक बुत का होता हूँ | शाही शायरी
mubtala ek but ka hota hun

ग़ज़ल

मुब्तला एक बुत का होता हूँ

किशन कुमार वक़ार

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मुब्तला एक बुत का होता हूँ
आज ईमान अपना खोता हूँ

तेग़-ए-अबरू के तीर इश्क़ में यार
जान से अपनी हाथ धोता हूँ

जान लेगी ये मुफ़्त की बेगार
बार-ए-रंज-ए-फ़िराक़ ढोता हूँ

ग़ोते खाता हूँ बहर-ए-उल्फ़त में
हाल पर अपने आप रोता हूँ

एक झूटे के वस्फ़-ए-दंदाँ में
सच्चे मोती सदा पिरोता हूँ

दिल लगाता हूँ उन की मिज़्गाँ से
अपने हक़ में ये काँटे बोता हूँ

ग़म में इक माह-वश के अश्कों से
दामन-ए-आसमाँ भिगोता हूँ

बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता का हूँ दिल-ए-बेदार
कौन शब ऐ 'वक़ार' सोता हूँ