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मोहतसिब ने जो निकाला हमें मयख़ाने से | शाही शायरी
mohtasib ne jo nikala hamein maiKHane se

ग़ज़ल

मोहतसिब ने जो निकाला हमें मयख़ाने से

अश्क रामपुरी

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मोहतसिब ने जो निकाला हमें मयख़ाने से
दूर तक आँख मिलाते गए पैमाने से

आज तो ख़ुम ही लगा दे मिरे मुँह से साक़ी
मेरी निय्यत नहीं भरती तिरे पैमाने से

आप इतना तो ज़रा हज़रत-ए-नासेह समझें
जो न समझे उसे क्या फ़ाएदा समझाने से

मैं ने चक्खी थी तो साक़ी ने कहा जोड़ के हाथ
आप लिल्लाह चले जाइए मयख़ाने से

तुम ज़रा नासेह-ए-नादाँ को दिखा दो जल्वा
बाज़ आता नहीं ज़ालिम मुझे समझाने से

न उठे जौर किसी से तो वो रो कर बोले
बे-मज़ा हो गए हम 'अश्क' के मर जाने से