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मोहलत न दे ज़रा भी मुझे मेरी जान खींच | शाही शायरी
mohlat na de zara bhi mujhe meri jaan khinch

ग़ज़ल

मोहलत न दे ज़रा भी मुझे मेरी जान खींच

सहबा वहीद

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मोहलत न दे ज़रा भी मुझे मेरी जान खींच
मैं आरज़ू तमाम हूँ अपनी कमान खींच

इक महशर-ए-जमाल उठा तोड़ दे जुमूद
तीर-ए-नज़र ज़मीन से ता-आसमान खींच

मैं आ रहा हूँ बरसर-ए-मौज-ए-हवा-ए-गुल
तू लाख अपने गिर्द हिसार-ए-मकान खींच

लम्हात-ए-बे-अमाँ भी ग़नीमत हैं पास आ
मौज़ू-ए-दीगराँ भी न अब दरमियान खींच

वो लब-चशीदनी हैं वो दामन-कशीदनी
आए न गर यक़ीं तो पए-इम्तिहान खींच

'सहबा' ये शहर-ए-ज़ीस्त सदाओं का शहर है
यानी तनाब-ए-हसरत-ए-हुस्न-ए-बयान खींच