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मोहब्बत मुझ से कहती थी ज़रा होश्यार दामन से | शाही शायरी
mohabbat mujhse kahti thi zara hoshyar daman se

ग़ज़ल

मोहब्बत मुझ से कहती थी ज़रा होश्यार दामन से

शाहिद भोपाली

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मोहब्बत मुझ से कहती थी ज़रा होश्यार दामन से
जुनूँ आवाज़ देता था वो उलझे ख़ार दामन से

मिरे अश्क-ए-मुसलसल राएगाँ होने नहीं देता
बहुत नज़दीक रहता है ख़याल-ए-यार दामन से

सँभल ओ रहरव-ए-राह-ए-तलब मंज़िल न खो जाए
लिपटता है ग़ुबार-ए-राह ना-हमवार दामन से

जबीं-साई कहाँ की किस का सज्दा कुछ जो क़ाबू हो
छुपा कर बैठ जाऊँ आस्तान-ए-यार दामन से

हवा देते रहे दानिस्ता दीवाना समझ कर वो
जुनूँ होता रहा अक्सर मिरा बेदार दामन से

उभरती जाती है दामन पे अश्क-ए-ख़ूँ की रंगीनी
नुमायाँ होता जाता है नया गुलज़ार दामन से

उसे तूफ़ाँ कहूँ या जान-ए-साहिल क्या कहूँ 'शाहिद'
न उभरे जज़्ब हो कर अश्क-ए-दरिया-बार दामन से