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मोहब्बत में वफ़ा वालों को कब ईज़ा सताती है | शाही शायरी
mohabbat mein wafa walon ko kab iza satati hai

ग़ज़ल

मोहब्बत में वफ़ा वालों को कब ईज़ा सताती है

रिफ़अत सेठी

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मोहब्बत में वफ़ा वालों को कब ईज़ा सताती है
ये वो हैं जिन को सूली पर भी चढ़ कर नींद आती है

जुनून-ए-इश्क़ की मंज़िल से वाक़िफ़ ही नहीं कोई
हमारी चाक-दामानी पे दुनिया मुस्कुराती है

मसाफ़त राह-ए-उल्फ़त की नहीं आसाँ दिल-ए-नादाँ
मोहब्बत हर क़दम पर सैंकड़ों फ़ित्ने उठाती है

ख़ुदा मालूम कब पर्दा उठेगा दीद कब होगी
निगाहों से जो ओझल है उसी की याद आती है

बहाता हूँ कभी आँसू कभी फिरता हूँ मैं वापस
मोहब्बत की ख़लिश ऐसा शब-ए-ग़म में सताती है

मिटे पर भी वही है रहनुमाई का असर इस में
मुसाफ़िर को हमारी ख़ाक भी सत्ता बताती है

ज़माने को अदम आबाद में इक रोज़ आना है
सुनो शहर-ए-ख़मोशाँ से यही आवाज़ आती है

उठा पर्दा तो अब देखा नहीं जाता क़यामत है
मिरी नाकामियों पर वो तजल्ली मुस्कुराती है