मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की
दिल-ओ-जाँ ने तब आपस में मुबारक और सलामत की
क़यामत जिस को कहते हैं ये इक मुद्दत का था मिस्रा
ये मेरे मिस्रा-ए-मौज़ूँ ने उस क़द की क़यामत की
किया क़ुमरी ने नाला और खींची आह बुलबुल ने
चली कुछ बात जब गुलशन में मेरे सर्व-क़ामत की
जब अपना काम तेरे इश्क़ में तदबीर से गुज़रा
चली आँखों से मेरी सैल तब अश्क-ए-नदामत की
सुख़न का ये बुज़ुर्गों की ततब्बो बस-कि करता है
निकलती है 'हसन' की बात में इक बू क़दामत की
ग़ज़ल
मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की
मीर हसन