EN اردو
मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की | शाही शायरी
mohabbat mein teri jab mujhko aalam ne malamat ki

ग़ज़ल

मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की

मीर हसन

;

मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की
दिल-ओ-जाँ ने तब आपस में मुबारक और सलामत की

क़यामत जिस को कहते हैं ये इक मुद्दत का था मिस्रा
ये मेरे मिस्रा-ए-मौज़ूँ ने उस क़द की क़यामत की

किया क़ुमरी ने नाला और खींची आह बुलबुल ने
चली कुछ बात जब गुलशन में मेरे सर्व-क़ामत की

जब अपना काम तेरे इश्क़ में तदबीर से गुज़रा
चली आँखों से मेरी सैल तब अश्क-ए-नदामत की

सुख़न का ये बुज़ुर्गों की ततब्बो बस-कि करता है
निकलती है 'हसन' की बात में इक बू क़दामत की