मोहब्बत लाज़मी है मानता हूँ
मगर हम-ज़ाद अब मैं थक गया हूँ
तुम्हारा हिज्र काँधे पर रखा है
न जाने किस जगह मैं जा रहा हूँ
मिरी पहली कमाई है मोहब्बत
मोहब्बत जो तुम्हें मैं दे चुका हूँ
मिरे चारों तरफ़ इक शोर सा है
मगर फिर भी यहाँ तन्हा खड़ा हूँ
कोई तो हो जो मेरे दर्द बाँटे
मुसलसल हिज्र का मारा हुआ हूँ
मोहब्बत, हिज्र, नफ़रत मिल चुकी है
मैं तक़रीबन मुकम्मल हो चुका हूँ
ग़ज़ल
मोहब्बत लाज़मी है मानता हूँ
नदीम भाभा