मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
हम उन को आज़माते हैं वो हम को आज़माते हैं
न घटती शान-ए-माशूक़ी जो आ जाते अयादत को
बुरे वक़्तों में अच्छे लोग अक्सर काम आते हैं
जो हम कहते नहीं मुँह से तो ये अपनी मुरव्वत है
चुराना दिल का ज़ाहिर है कि वो आँखें चुराते हैं
समाँ उस बज़्म का बरसों ही गुज़रा है निगाहों से
कब ऐसे-वैसे जलसे अपनी आँखों में समाते हैं
कहाँ तक इम्तिहाँ कब तक मोहब्बत आज़माओगे
उन्हीं बातों से दिल अहल-ए-वफ़ा के छूट जाते हैं
ख़ुमार आँखों में बाक़ी है अभी तक बज़्म-ए-दुश्मन का
तसद्दुक़ उस ढिटाई के नज़र हम से मिलाते हैं
दिल इक जिन्स-ए-गिराँ-माया है लेकिन आँख वालों में
ये देखें हुस्न वाले इस की क़ीमत क्या लगाते हैं
किसी के सर की आफ़त हो हमारे सर ही आती है
किसी का दिल कोई ताके मगर हम चोट खाते हैं
गए वो दिन कि नामे चाक होते थे 'हफ़ीज़' अपने
हसीन अब तो मिरी तहरीर आँखों से लगाते हैं
ग़ज़ल
मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
हफ़ीज़ जौनपुरी