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मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी | शाही शायरी
mohabbat ko kahte ho barti bhi thi

ग़ज़ल

मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी

मुज़्तर ख़ैराबादी

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मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
चलो जाओ बैठो कभी की भी थी

बड़े तुम हमारे ख़बर-गीर-ए-हाल
ख़बर भी हुई थी ख़बर ली भी थी

सबा ने वहाँ जा के क्या कह दिया
मिरी बात कम-बख़्त समझी भी थी

गिला क्यूँ मिरे तर्क-ए-तस्लीम का
कभी तुम ने तलवार खींची भी थी

दिलों में सफ़ाई के जौहर कहाँ
जो देखा तो पानी में मिट्टी भी थी

बुतों के लिए जान 'मुज़्तर' ने दी
यही उस के मालिक की मर्ज़ी भी थी