मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
चलो जाओ बैठो कभी की भी थी
बड़े तुम हमारे ख़बर-गीर-ए-हाल
ख़बर भी हुई थी ख़बर ली भी थी
सबा ने वहाँ जा के क्या कह दिया
मिरी बात कम-बख़्त समझी भी थी
गिला क्यूँ मिरे तर्क-ए-तस्लीम का
कभी तुम ने तलवार खींची भी थी
दिलों में सफ़ाई के जौहर कहाँ
जो देखा तो पानी में मिट्टी भी थी
बुतों के लिए जान 'मुज़्तर' ने दी
यही उस के मालिक की मर्ज़ी भी थी
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ग़ज़ल
मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
मुज़्तर ख़ैराबादी