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मोहब्बत की गली से हम जहाँ हो कर निकल आए | शाही शायरी
mohabbat ki gali se hum jahan ho kar nikal aae

ग़ज़ल

मोहब्बत की गली से हम जहाँ हो कर निकल आए

चित्रांश खरे

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मोहब्बत की गली से हम जहाँ हो कर निकल आए
ग़ज़ल कहने के तब से ख़ुद-ब-ख़ुद मंज़र निकल आए

हमारे हाल पर कोई भी होता जी नहीं पाता
ग़ज़ल ने हाथ जब पकड़ा तो हम बच कर निकल आए

ये सरकारी महल भी किस क़दर कच्चे निकलते है
ज़रा बारिश हुई बुनियाद के पत्थर निकल आए

सिफ़ारिश के बिना जब भी चले हम हसरतें ले कर
हुई जब शाम तो मायूस अपने घर निकल आए

ज़रा सी देर हम ने नर्म लहजा क्या किया अपना
हमारे दुश्मनों के कैसे कैसे पर निकल आए