EN اردو
मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता | शाही शायरी
mohabbat ke siwa harf-o-bayan se kuchh nahin hota

ग़ज़ल

मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता

गुलज़ार बुख़ारी

;

मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता
हवा साकिन रहे तो बादबाँ से कुछ नहीं होता

चलूँ तो मस्लहत ये कह के पाँव थाम लेती है
वहाँ जाना भी क्या हासिल जहाँ से कुछ नहीं होता

ज़रूरत-मँद है सैद-अफगनी मश्शाक़ हाथों की
फ़क़त यकजाई-ए-तीर-ओ-कमाँ से कुछ नहीं होता

मुसलसल बारिशें भी सब्ज़ा-ओ-गुल ला नहीं सकतीं
ज़मीं जब बे-नुमू हो आसमाँ से कुछ नहीं होता

तलाफ़ी के लिए दरकार है आईना-साज़ी भी
शिकस्त-ए-शीशा पर ज़िक्र-ए-ज़बाँ से कुछ नहीं होता

ख़ला में तीर-अंदाज़ी से क्या 'गुलज़ार' पाओगे
मयस्सर इस जुनून-ए-राएगाँ से कुछ नहीं होता