मोहब्बत का ये रुख़ देखा नहीं था
वो यूँ बदलेगा ये सोचा नहीं था
अजब है सह के ज़ख़्म-ए-बे-वफ़ाई
ये दिल कहता है वो ऐसा नहीं था
सबब कोई तो है उन नफ़रतों का
मैं झूटा था कि वो सच्चा नहीं था
न जाने क्यूँ मिरे हिस्से में आया
वो दुख क़िस्मत में जो लिक्खा नहीं था
बहुत तन्हाइयाँ थीं इस से पहले
मगर इतना भी मैं तन्हा नहीं था
चलो कुछ तो घुटन कम हो गई है
बहुत दिन हो गए रोया नहीं था
किनारे पर खड़ा वो कह रहा है
समुंदर इस क़दर गहरा नहीं था
सभी कुछ है 'नदीम' अब पास मेरे
बस इक वो शख़्स जो मेरा नहीं था
ग़ज़ल
मोहब्बत का ये रुख़ देखा नहीं था
फ़रहत नदीम हुमायूँ