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मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ | शाही शायरी
mohabbat ka jahan hai aur main hun

ग़ज़ल

मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ

क़मर मुरादाबादी

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मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मिरा दारुल-अमाँ है और मैं हूँ

हयात-ए-ग़म निशाँ है और मैं हूँ
मुसलसल इम्तिहाँ है और मैं हूँ

निगाह-ए-शौक़ है और उन के जल्वे
शिकस्त-ए-ना-गहाँ है और मैं हूँ

उसी का नाम हो शायद मोहब्बत
कोई बार-ए-गिराँ है और मैं हूँ

मोहब्बत बे-सहारा तो नहीं है
मिरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ

मोहब्बत के फ़साने अल्लाह अल्लाह
ज़माने की ज़बाँ है और मैं हूँ

'क़मर' तक़लीद का क़ाइल नहीं मैं
मिरा तर्ज़-ए-बयाँ है और मैं हूँ