मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
मगर फिर दुश्मन-ए-ईमान-ओ-दीं मा'लूम होती है
वजूद-ए-ज़ात अक्स-ए-आलम-ए-हस्ती से है साबित
तिरी सूरत ही सूरत-आफ़रीं मा'लूम होती है
मैं मिलना चाहता हूँ तुझ से ऐसे तूर पर जा कर
जहाँ तेरी तजल्ली भी नहीं मा'लूम होती है
गए हम दैर से का'बे मगर ये कह के फिर आए
कि तेरी शक्ल कुछ अच्छी वहीं मा'लूम होती है
तिरी बर्क़-ए-तजल्ली के चलन हम से कोई पूछे
चमकती है कहीं लेकिन कहीं मा'लूम होती है
तिरा ए'जाज़-ए-क़ुदरत है कि हस्ती की नुमाइश में
ज़माने-भर को शक्ल अपनी हसीं मा'लूम होती है
दिल-ए-'मुज़्तर' ख़ुदा के वास्ते इस से किनारा कर
मोहब्बत दुश्मन-ए-जान-ए-हज़ीं मा'लूम होती है
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ग़ज़ल
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
मुज़्तर ख़ैराबादी