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मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है | शाही शायरी
mohabbat be-niyaz-e-ma-siwa hai

ग़ज़ल

मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है

मख़मूर जालंधरी

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मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है
बड़े झगड़ों पे क़ाबू पा लिया है

तसव्वुर फ़िल-हक़ीक़त मो'जिज़ा है
किसी का दिल पे साया पड़ रहा है

ख़ुदा ही से न क्यूँ माँगूँ पनाहें
कि ज़ेहन-ए-ना-ख़ुदा में भी ख़ुदा है

मुहाफ़िज़ भी मिरा मजबूर निकला
गिना करता हूँ मैं वो देखता है

समझता है तुझे अपनी तजल्ली
तिरा परतव भी कितना ख़ुद-नुमा है

ख़ुदा-ए-इश्क़ है वो हुस्न-ए-काफ़िर
मगर अब तक न समझा इश्क़ क्या है