मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है
बड़े झगड़ों पे क़ाबू पा लिया है
तसव्वुर फ़िल-हक़ीक़त मो'जिज़ा है
किसी का दिल पे साया पड़ रहा है
ख़ुदा ही से न क्यूँ माँगूँ पनाहें
कि ज़ेहन-ए-ना-ख़ुदा में भी ख़ुदा है
मुहाफ़िज़ भी मिरा मजबूर निकला
गिना करता हूँ मैं वो देखता है
समझता है तुझे अपनी तजल्ली
तिरा परतव भी कितना ख़ुद-नुमा है
ख़ुदा-ए-इश्क़ है वो हुस्न-ए-काफ़िर
मगर अब तक न समझा इश्क़ क्या है
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ग़ज़ल
मोहब्बत बे-नियाज़-ए-मा-सिवा है
मख़मूर जालंधरी