मोहब्बत बाँटने निकले थे पत्थर ले के घर लौटे
बहुत से दश्त छाने और हो के दर-ब-दर लौटे
हमारी सोच से दिल तक बड़ी लम्बी मसाफ़त है
चलो अब देखते हैं कि कहाँ से ये नज़र लौटे
जहाँ में मसनदें अब बे-हुनर आबाद करते हैं
जभी तो ले के आँखें नम सभी अहल-ए-हुनर लौटे
लिए हम काँच का दिल बर-सर-ए-बाज़ार बैठे हैं
थे पत्थर जिनकी झोली ख़ुश वही तो बाज़ीगर लौटे
वो झूटे लोग जो मिल कर हमीं को झूट कर देंगे
उन्हीं को आज़मा कर हम भी अपनी रहगुज़र लौटे
क़रार-ए-जाँ बनाने को बहाने और क्या कम थे
भला 'मुमताज़' ले के कौन यूँ ज़ख़्मी जिगर लौटे
ग़ज़ल
मोहब्बत बाँटने निकले थे पत्थर ले के घर लौटे
मुमताज़ मालिक