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मोहब्बत बाइस-ए-दीवानगी है और बस मैं हूँ | शाही शायरी
mohabbat bais-e-diwangi hai aur bas main hun

ग़ज़ल

मोहब्बत बाइस-ए-दीवानगी है और बस मैं हूँ

क़ैसर निज़ामी

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मोहब्बत बाइस-ए-दीवानगी है और बस मैं हूँ
कि अब पैहम इनायत आप की है और बस मैं हूँ

सुकूँ हासिल है दिन में और न शब को चैन मिलता है
कि अब तो कशमकश में ज़िंदगी है और बस मैं हूँ

न जाने माजरा क्या है नज़र कुछ भी नहीं आता
कि अब हद्द-ए-नज़र तक तीरगी है और बस मैं हूँ

नहीं है आज मुझ को ख़दशा-ए-ज़ुल्मत ज़माने में
रुख़-ए-ताबाँ की उन के रौशनी है और बस मैं हूँ

क़दम क्या डगमगाएँगे रह-ए-उल्फ़त में ऐ साक़ी
बहुत ही मुख़्तसर सी बे-ख़ुदी है और बस मैं हूँ

तिरे नक़्श-ए-क़दम पर सर झुकाना काम है अपना
ख़ुदा शाहिद ये मेरी बंदगी है और बस मैं हूँ

उन्हें रूदाद-ए-ग़म अपनी सुनाऊँ किस तरह 'क़ैसर'
वही उन की अदा-ए-बरहमी है और बस मैं हूँ