मो'जिज़ा ये भी दिखाया मैं ने
अपने क़ातिल को रुलाया मैं ने
ख़ुद ही ज़ख़्मों से सजाया दिल को
और फिर जश्न मनाया मैं ने
ज़ीस्त बे-नूर हुई जाती थी
फिर लहू दिल का जलाया मैं ने
चाँद और फूल ही क्या हर शय में
बस तिरा अक्स ही पाया मैं ने
तेरी यादों को सजा कर दिल में
इक सनम-ख़ाना बनाया मैं ने
शहर-ए-एहसास था वो ख़ुद भी 'निगार'
बुत-कदा दिल का जो ढाया मैं ने
ग़ज़ल
मो'जिज़ा ये भी दिखाया मैं ने
निगार अज़ीम