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मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ | शाही शायरी
mizhgan wo jhapakta hai ab tir hai aur main hun

ग़ज़ल

मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ

नज़ीर अकबराबादी

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मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ
सर पाँव से छिदने की तस्वीर है और मैं हूँ

कहता है वो कल तेरे पुर्ज़े मैं उड़ाउँगा
अब सुब्ह को क़ातिल की शमशीर है और मैं हूँ

बे-जुर्म-ओ-ख़ता जिस का ख़ूँ होवे रवा यारो
उस ख़ूबी-ए-क़िस्मत का नख़चीर है और मैं हूँ

है क़त्ल की धुन उस को और मेरी नज़र हक़ पर
तदबीर है और वो है तक़दीर है और मैं हूँ

दिल टूटा 'नज़ीर' अब तो दो-चार बरस रो कर
इस क़स्र-ए-शिकस्ता की तामीर है और मैं हूँ