EN اردو
मिज़्गान-ए-तर हूँ या रग-ए-ताक-ए-बुरीदा हूँ | शाही शायरी
mizhgan-e-tar hun ya rag-e-tak-e-burida hun

ग़ज़ल

मिज़्गान-ए-तर हूँ या रग-ए-ताक-ए-बुरीदा हूँ

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

;

मिज़्गान-ए-तर हूँ या रग-ए-ताक-ए-बुरीदा हूँ
जो कुछ कि हूँ सो हूँ ग़रज़ आफ़त-रसीदा हूँ

खींचे है दूर आप को मेरी फ़रोतनी
उफ़्तादा हूँ प साया-ए-क़द्द-ए-कशीदा हूँ

हर शाम मिस्ल-ए-शाम हूँ मैं तीरा-रोज़गार
हर सुब्ह मिस्ल-ए-सुब्ह गरेबाँ-दरीदा हूँ

करती है बू-ए-गुल तू मिरे साथ इख़्तिलात
पर आह मैं तो मौज-ए-नसीम-ए-दज़ीदा हूँ

तू चाहती है तो तपिश-ए-दिल कि बा'द-ए-मर्ग
कुंज-ए-मज़ार में भी न मैं आर्मीदा हूँ

ऐ 'दर्द' जा चुका है मिरा काम ज़ब्त से
मैं ग़म-ज़दा तो क़तरा-ए-अश्क-ए-चकीदा हूँ