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मिज़ाज-ए-शे'र को हर दौर में रहा महबूब | शाही शायरी
mizaj-e-sher ko har daur mein raha mahbub

ग़ज़ल

मिज़ाज-ए-शे'र को हर दौर में रहा महबूब

ज़ाहिद कमाल

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मिज़ाज-ए-शे'र को हर दौर में रहा महबूब
खनकता लहजा सुलगता हुआ नया उस्लूब

तलाश और तजस्सुस के बावजूद हमें
वो चीज़ मिल न सकी जो है वक़्त को मतलूब

कोई भी आँख वहाँ तक पहुँच नहीं सकती
छुपा के रक्खे हैं तू ने जहाँ मिरे मक्तूब

अभी तो आस के आँगन में कुछ उजाला है
सलोने चाँद जुदाई के बादलों में न डूब

जो लोग कहते रहे हैं ख़ुदा मोहब्बत है
ख़ुद उन के हाथों ही मासूमियत हुई मस्लूब

'क़ुली'-क़ुतुब नहीं 'ज़ाहिद'-कमाल हूँ ऐ दोस्त
मैं तेरे नाम से किस शहर को करूँ मंसूब