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मिज़ाज-ए-ग़म समझता क्यूँ नहीं है | शाही शायरी
mizaj-e-gham samajhta kyun nahin hai

ग़ज़ल

मिज़ाज-ए-ग़म समझता क्यूँ नहीं है

मुर्ली धर शर्मा तालिब

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मिज़ाज-ए-ग़म समझता क्यूँ नहीं है
मिरा इदराक मुझ सा क्यूँ नहीं है

गरजता है बरसता क्यूँ नहीं है
यहाँ बादल भी सच्चा क्यूँ नहीं है

कहाँ तक आइनों को हम बदलते
हमारा कुछ भी अच्छा क्यूँ नहीं है

नहीं सुनता खरी इक बात कोई
खरा सिक्का भी चलता क्यूँ नहीं है

सफ़र जारी है और मैं किस से पूछूँ
कोई रस्ता भी सीधा क्यूँ नहीं है

तअ'ज्जुब है यहाँ उस शहर में अब
किसी काँधे पे चेहरा क्यूँ नहीं है

वो सागर है अगर तू क्यूँ है प्यासा
वो गागर है तो भरता क्यूँ नहीं है

बहुत अश्जार हैं इन रास्तों में
मिरे सर फिर भी साया क्यूँ नहीं है

बुरीदा-पर नहीं कोई क़फ़स में
परिंदा फिर भी उड़ता क्यूँ नहीं है

अगरचे दास्ताँ मेरी है फिर भी
कोई किरदार मुझ सा क्यूँ नहीं है

बहा देता है क्यूँ आँसू में 'तालिब'
ग़ज़ल के शेर कहता क्यूँ नहीं है