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मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस | शाही शायरी
miyan sabr-azmai ho chuki bas

ग़ज़ल

मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
मिलो अब बेवफ़ाई हो चुकी बस

बहार-ए-ख़ुद-नुमाई हो चुकी बस
जहाँ छूटी हवाई हो चुकी बस

यही है उस की गर बेगाना-वज़ई
तो हम से आश्नाई हो चुकी बस

भरोसा क्या हमारा अश्क की बूँद
जहाँ मिज़्गाँ पर आई हो चुकी बस

फँसे सय्याद के फंदे में बे-तरह
हमारी अब रिहाई हो चुकी बस

न मिल हज्जाम-ए-रुख़्सार उस के हर-दम
मुंडाया ख़त सफ़ाई हो चुकी बस

अदा में वाँ अदा निकलीं हैं लाखों
मैं समझा बे-अदाई हो चुकी बस

दिला मत दीदा-ए-ख़ूँ-बार को पोंछ
हर इक उँगली हिनाई हो चुकी बस

यही दरबाँ पे है क़दग़न तो यारो
सबा की वाँ रसाई हो चुकी बस

ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
तुम्हारी मीरज़ाई हो चुकी बस