EN اردو
मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग | शाही शायरी
miTti qadron mein bhi paband-e-wafa hain hum log

ग़ज़ल

मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग

इंद्र मोहन मेहता कैफ़

;

मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग
किसी चलते हुए जोगी की सदा हैं हम लोग

मंज़िलें पाओगे हम ख़ाक-नशीनों के तुफ़ैल
हम ने माना कि निशान-ए-कफ़-ए-पा हैं हम लोग

अहल-ए-मय-ख़ाना हमें देख के हँसते हैं तो क्या
पीर-ए-मय-ख़ाना को मा'लूम है क्या हैं हम लोग

ज़िंदगी क़ैद की मुद्दत है तो ये भी सच है
अपने ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा हैं हम लोग

जो अभी वक़्त के गुम्बद में है महफ़ूज़ ऐ 'कैफ़'
और पलट कर नहीं आई वो सदा हैं हम लोग