मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
जिंस तो है पे ज़ुलेख़ा सा ख़रीदार कहाँ
फ़ैज़ होता है मकीं पर न मकाँ पर नाज़िल
है वही तूर वले शोला-ए-दीदार कहाँ
ऐश ओ राहत के तलाशी हैं ये सारे बेदर्द
एक हम को है यही फ़िक्र कि आज़ार कहाँ
इश्क़ अगर कीजिए दिल कीजिए किस से ख़ाली
दर्द ओ ग़म कम नहीं इस दौर में ग़म-ख़्वार कहाँ
क़ैदी उस सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ के अब कम हैं 'यक़ीं'
हैं दिल-आज़ार बहुत जान-गिरफ़्तार कहाँ
ग़ज़ल
मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन