मिस्ल-ए-अब्र-ए-करम हम जहाँ भी गए दश्त के दश्त गुलज़ार बनते गए
ज़र्द चेहरे थे झुलसे हुए धूप से ताज़गी पा के गुलनार बनते गए
जितना बहता गया ज़िंदगी का लहू और होते गए हौसले सुर्ख़-रू
सहल होती गई मंज़िल-ए-जुस्तुजू रास्ते और हमवार बनते गए
कुछ सफ़र की थकन से बदन चोर था कुछ ज़मीं सख़्त थी आसमाँ दूर था
कुछ तिरी ज़ुल्फ़ के साए भी थे घने फिर यही साए दीवार बनते गए
लाख आवारा ओ आबला-पा सही मंज़िलें तो हैं क़दमों से लिपटी हुई
वो हमीं हैं कि जब धुन समाई कभी बर्क़-पा नूर-ए-रफ़्तार बनते गए
अव्वल अव्वल थीं राहें बड़ी पुर-ख़तर कौन था जुज़ ग़म-ए-दिल शरीक-ए-सफ़र
फिर जो पड़ने लगी मंज़िलों पर नज़र दोस्त दुश्मन सभी यार बनते गए
हम भी ठहरे 'मुजीब' एक शोरीदा-सर जब न पाया कोई कद्र-दान-ए-हुनर
आप अपने जुनूँ के सना-ख़्वाँ हुए आप अपने परस्तार बनते गए
ग़ज़ल
मिस्ल-ए-अब्र-ए-करम हम जहाँ भी गए दश्त के दश्त गुलज़ार बनते गए
मुजीब ख़ैराबादी