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मिसाल-ए-अक्स मिरे आइने में ढलता रहा | शाही शायरी
misal-e-aks mere aaine mein Dhalta raha

ग़ज़ल

मिसाल-ए-अक्स मिरे आइने में ढलता रहा

यासमीन हमीद

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मिसाल-ए-अक्स मिरे आइने में ढलता रहा
वो ख़द्द-ओ-ख़ाल भी अपने मगर बदलता रहा

मैं पत्थरों पे गिरी और ख़ुद सँभल भी गई
वो ख़ामुशी से मिरे साथ साथ चलता रहा

उजाला होते ही कैसे उसे बुझाऊँगी
अगर चराग़ मिरा ता-ब-सुब्ह जलता रहा

मैं उस के मअ'नी ओ मक़्सद के संग चुनती रही
वो एक हर्फ़ जो एहसास को कुचलता रहा

ज़मीं ख़ुलूस की मिट्टी से बे-नियाज़ रही
रिफ़ाक़तों का शजर वाहिमों पे पलता रहा