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मिरी ज़िंदगी है सराब सी कभी मौजज़न कभी तिश्ना-दम | शाही शायरी
meri zindagi hai sarab si kabhi maujzan kabhi tishna-dam

ग़ज़ल

मिरी ज़िंदगी है सराब सी कभी मौजज़न कभी तिश्ना-दम

जगदीश प्रकाश

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मिरी ज़िंदगी है सराब सी कभी मौजज़न कभी तिश्ना-दम
कभी इंतिज़ार की धूप सी कभी क़ुर्बतों का कोई भरम

तिरी चाहतों का ये सिलसिला किसी धूप छाँव के खेल सा
कभी पूस माघ की धूप सा कभी नग़्मा-ख़्वाँ कभी चश्म-ए-नम

मुझे छू के वक़्त गुज़र गया ज़रा रुक के उम्र निकल गई
जो रहा तो पास यही रहा कभी अपना दुख कभी सब का ग़म

कभी रास्तों के ग़ुबार में कभी मंज़िलों के ख़ुमार में
कभी जुस्तुजू-ए-बहार में रहे हादसों से बंधे क़दम

तिरा नाम सुन के चली पवन तिरा ज़िक्र सुन के खिला चमन
कि मिरी सवानेह-ए-ज़ीस्त पर तिरा नाम लिख के रुका क़लम

ये ज़रा ज़रा सी शिकायतें कहीं बन न जाएँ हिकायतें
यही पूछते कि हुआ है क्या कभी हम से तुम कभी तुम से हम

कभी क़ुर्बतों का सुकूँ मिला कभी फुर्क़तों का जुनूँ मिला
कभी खो गए सभी रास्ते कभी मंज़िलों से मिले क़दम