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मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है | शाही शायरी
meri thakan mere qasd-e-safar se zahir hai

ग़ज़ल

मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है

सलीम शाहिद

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मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है
उदास शाम का मंज़र सहर से ज़ाहिर है

न कोई शाख़-ए-इबारत न कोई लफ़्ज़ का फूल
ये अहद बाँझ है क़हत-ए-हुनर से ज़ाहिर है

जो पूछा क्या हुईं शाख़ें समर-ब-दस्त जो थीं
कहा कि देख लो सब कुछ शजर से ज़ाहिर है

फ़क़त ये वहशत-ए-इज़हार है इलाज नहीं
ये बोझ यूँ नहीं उतरेगा सर से ज़ाहिर है

मैं अपनी राख में ख़्वाहिश दबाए बैठा हूँ
ये आग जल के रहेगी शरर से ज़ाहिर है

वो उम्र-भर की असीरी मिली तमन्ना को
ग़रीब मर के ही निकलेगी घर से ज़ाहिर है

तू रेज़ा रेज़ा तअ'ल्लुक़ से घर बना 'शाहिद'
मगर ये दश्त तो दीवार-ओ-दर से ज़ाहिर है