मिरी शाकी है ख़ुद मेरी फ़ुग़ाँ तक
कि तालू से नहीं लगती ज़बाँ तक
कोई हसरत ही ले आए मना कर
मिरे रूठे हुए दिल को यहाँ तक
जगह क्या दर्द की भी छीन लेगा
जिगर का दाग़ फैलेगा कहाँ तक
असर नालों में जो था वो भी खोया
बहुत पछताए जा कर आसमाँ तक
फ़लक तेरे जिगर के दाग़ हैं हम
मिटाए जा मिटाना है जहाँ तक
वो क्या पहलू में बैठे उठ गए क्या
न लीं जल्दी में दो इक चुटकियाँ तक
कोई माँगे तो आ कर मुंतज़िर है
लिए थोड़ी सी जान इक नीम-जाँ तक
उठाने से अजल के मैं न उठता
वो आते तो कभी मुझ ना-तवाँ तक
'जलाल'-ए-नाला-कश चुपका न होगा
वो दे कर देख लें मुँह में ज़बाँ तक
ग़ज़ल
मिरी शाकी है ख़ुद मेरी फ़ुग़ाँ तक
जलाल लखनवी