मिरी सच्चाई हर सूरत तिरी मुट्ठी से निकलेगी
अँगूठी गिर के दरिया में किसी मछली से निकलेगी
फ़क़ीरों को तू अपनी शान-ओ-शौकत क्या दिखाता है
हुकूमत सारे आलम की मिरी गठरी से निकलेगी
मैं तन्हा ही नहीं जो बे-सबब सच बोल देते हैं
ये बीमारी ग़रीबों की हर इक बस्ती से निकलेगी
इन्हीं ज़ख़्मों को मेरे दर्द का बाइस न जानो तुम
निशानी और भी उजड़ी हुई दिल्ली से निकलेगी
मोहब्बत की बुलंदी पार कर के तुम कभी देखो
अनल-हक़ की सदा बहती हुई लकड़ी से निकलेगी
ग़रीबी दूर करने आसमाँ से कौन आएगा
ख़ज़ाने से भरी गगरी इसी मिट्टी से निकलेगी
अभी दो-चार जुमलों से भरा काग़ज़ का टुकड़ा है
ख़िज़ाँ आने दो फिर ख़ुशबू मिरी चिट्ठी से निकलेगी
क़राबत तो मयस्सर है मगर ये दिल की तन्हाई
मिरी मर्ज़ी से आई है मिरी मर्ज़ी से निकलेगी
अंधेरा देखना ख़ुद ले के आएगा दिया मेरा
किसी दिन रौशनी 'सागर' इसी आँधी से निकलेगी
ग़ज़ल
मिरी सच्चाई हर सूरत तिरी मुट्ठी से निकलेगी
ताैफ़ीक़ साग़र