मिरी नज़र मिरा अपना मुशाहिदा है कहाँ
जो मुस्तआ'र नहीं है वो ज़ाविया है कहाँ
अगर नहीं तिरे जैसा तो फ़र्क़ कैसा है
अगर मैं अक्स हूँ तेरा तो आइना है कहाँ
हुई है जिस में वज़ाहत हमारे होने की
तिरी किताब में आख़िर वो हाशिया है कहाँ
ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
मैं जिस के साथ चला था वो क़ाफ़िला है कहाँ
मदार में हूँ अगर मैं तो है कशिश किस की
अगर मैं ख़ुद ही कशिश हूँ तो दायरा है कहाँ
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
है सूखने को पसीना मुआवज़ा है कहाँ
हुआ बहिश्त से बे-दख़्ल जिस के बाइ'स मैं
मिरी ज़बान पर उस फल का ज़ाइक़ा है कहाँ
अज़ल से है मुझे दरपेश दाएरों का सफ़र
जो मुस्तक़ीम है या रब वो रास्ता है कहाँ
अगरचे इस से गुज़र तो रहा हूँ मैं 'आसिम'
ये तजरबा भी मिरा अपना तजरबा है कहाँ
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ग़ज़ल
मिरी नज़र मिरा अपना मुशाहिदा है कहाँ
आसिम वास्ती