मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
दिया है मैं ने उन्हें ज़ौक़-ए-आतिश आशामी
हरम के पास कोई आजमी है ज़मज़मा-संज
कि तार तार हुए जामा हाए एहरामी
हक़ीक़त-ए-अबदी है मक़ाम-ए-शब्बीरी
बदलते रहते हैं अंदाज़-ए-कूफ़ी ओ शामी
मुझे ये डर है मुक़ामिर हैं पुख़्ता-कार बहुत
न रंग लाए कहीं तेरे हाथ की ख़ामी
अजब नहीं कि मुसलमाँ को फिर अता कर दें
शिकवा-ए-संजर ओ फ़क़्र-ए-जुनेद ओ बस्तामी
क़बा-ए-इल्म ओ हुनर लुत्फ़-ए-ख़ास है वर्ना
तिरी निगाह में थी मेरी ना-ख़ुश अंदामी
ग़ज़ल
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
अल्लामा इक़बाल