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मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी | शाही शायरी
meri nawa se hue zinda aarif o aami

ग़ज़ल

मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी

अल्लामा इक़बाल

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मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
दिया है मैं ने उन्हें ज़ौक़-ए-आतिश आशामी

हरम के पास कोई आजमी है ज़मज़मा-संज
कि तार तार हुए जामा हाए एहरामी

हक़ीक़त-ए-अबदी है मक़ाम-ए-शब्बीरी
बदलते रहते हैं अंदाज़-ए-कूफ़ी ओ शामी

मुझे ये डर है मुक़ामिर हैं पुख़्ता-कार बहुत
न रंग लाए कहीं तेरे हाथ की ख़ामी

अजब नहीं कि मुसलमाँ को फिर अता कर दें
शिकवा-ए-संजर ओ फ़क़्र-ए-जुनेद ओ बस्तामी

क़बा-ए-इल्म ओ हुनर लुत्फ़-ए-ख़ास है वर्ना
तिरी निगाह में थी मेरी ना-ख़ुश अंदामी