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मिरी मोहब्बत की बे-ख़ुदी को तलाश-ए-हक़्क़-ए-जलाल देना | शाही शायरी
meri mohabbat ki be-KHudi ko talash-e-haqq-e-jalal dena

ग़ज़ल

मिरी मोहब्बत की बे-ख़ुदी को तलाश-ए-हक़्क़-ए-जलाल देना

इफ़्फ़त अब्बास

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मिरी मोहब्बत की बे-ख़ुदी को तलाश-ए-हक़्क़-ए-जलाल देना
कभी जो पाबंदा-ए-सितम हूँ मुझे भी अज़्म-ए-मक़ाल देना

मोहब्बतों की ये शोख़ियाँ हैं ये ए'तिमाद-ए-वफ़ा है मेरा
बिगड़ के फ़िहरिस्त-ए-आशिक़ाँ से कहीं न मुझ को निकाल देना

रह-ए-मोहब्बत की सख़्तियों से जो रंग-ए-रुख़ था झुलस चुका है
तुम्हारी उल्फ़त पे मर रहे हैं मिरा भी चेहरा उजाल देना

तुम्हारा सब हम को जानते हैं तो अपनी इज़्ज़त की लाज रख के
हमारी हस्ती के आइने को कोई हुनर कुछ कमाल देना

तुम्ही तो हो मीर मय-कदे के तुम्ही हो साक़ी-ए-तिश्ना-कामी
हम अपना साग़र लिए खड़े हैं ज़रा सी इस में भी ढाल देना

सुनी हैं फ़य्याज़ियाँ तुम्हारी तुम्हारे मस्तों में है ये शोहरत
है मेरे साक़ी का ये वतीरा कि जाम भर कर उबाल देना

पसंद हैं तुम को भीगी आँखें लरज़ते लब और उदास चेहरे
विसाल का जब इरादा करना मुझे भी रंग-ए-मलाल देना