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मिरी ख़मोशी को भी इक सदा समझते रहे | शाही शायरी
meri KHamoshi ko bhi ek sada samajhte rahe

ग़ज़ल

मिरी ख़मोशी को भी इक सदा समझते रहे

वक़ास अज़ीज़

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मिरी ख़मोशी को भी इक सदा समझते रहे
मैं क्या था और मुझे लोग क्या समझते रहे

हमारी नस्ल को उजलत ने ना-मुराद किया
ज़रा से शोर को ये देर-पा समझते रहे

ये दोस्त मेरे मुझे आज तक न जान सके
मैं एक दर्द था लेकिन दवा समझते रहे

दिखाई देता था ये शहर मेरी आँखों से
यहाँ के लोग मुझे आइना समझते रहे

ख़याल-ए-यार की चादर थी एक ख़्वाब 'अज़ीज़'
ये और बात उसे हम क़बा समझते रहे