मिरी ग़ज़ल गुनगुना रहा था
वही जो मुझ से ख़फ़ा रहा था
मेरे ख़यालों में गुम था शायद
वो अपना कंगन घुमा रहा था
मैं बादलों को मिला मिला कर
उसी का चेहरा बना रहा था
बिना तुम्हारे न जी सकेंगे
वो नींद में बुदबुदा रहा था
जो उस की आँखों से पी ली इक दिन
कई दिनों तक नशा रहा था
ग़ज़ल
मिरी ग़ज़ल गुनगुना रहा था
अशफ़ाक़ रशीद मंसूरी