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मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे | शाही शायरी
meri dastaras mein hai gar qalam mujhe husn-e-fikr-o-KHayal de

ग़ज़ल

मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे

आलमताब तिश्ना

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मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
मुझे शहरयार-ए-सुख़न बना और एनान-ए-शहर-ए-कमाल दे

मिरी शाख़-ए-शेर रहे हरी दे मिरे सुख़न को सनोबरी
मिरी झील में भी कँवल खिला मिरी गुदड़ियों को भी ला'ल दे

तिरी बख़्शिशों में है सरवरी मिरे इश्क़ को दे क़लंदरी
जो उठे तो दस्त-ए-दुआ लगे मुझे ऐसा दस्त-ए-सवाल दे

रग-ए-जाँ में जमने लगा लहू उसे मुश्क बनने की आरज़ू
है उदास दश्त-ए-ततार-ए-दल उसे फिर शलंग-ए-ग़ज़ाल दे

कोई बात अक़रब-ओ-शम्स की कोई ज़िक्र-ए-ज़ोहरा-ओ-मुशतरी
तू बड़ा सितारा-शनास है मुझे कोई अच्छी सी फ़ाल दे

हैं ये जिस्म-ओ-जाँ की क़ुयूद क्या ख़द-ओ-ख़ाल के ये हुदूद क्या
मैं हूँ अक्स-ए-मंज़र-ए-मावरा मुझे आइनों से निकाल दे

मैं वही हूँ 'तिश्ना'-ए-बा-वफ़ा मिरा आज भी वही मुद्दआ'
न फ़िराक़ दे मुझे मुस्तक़िल न मुझे हमेशा विसाल दे