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मिरी डगर से भी इक दिन गुज़र के देख ज़रा | शाही शायरी
meri Dagar se bhi ek din guzar ke dekh zara

ग़ज़ल

मिरी डगर से भी इक दिन गुज़र के देख ज़रा

मुर्ली धर शर्मा तालिब

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मिरी डगर से भी इक दिन गुज़र के देख ज़रा
ऐ आसमान ज़मीं पर उतर के देख ज़रा

धड़कने लगते हैं दीवार-ओ-दर भी दिल की तरह
कि संग-ओ-ख़िश्त में कुछ साँस भर के देख ज़रा

हर एक ऐब हुनर में बदल भी सकता है
हिसाब अपने गुनाहों का कर के देख ज़रा

तू चुप रहेगा तिरे हाथ-पाँव बोलेंगे
यक़ीं न आए तो इक रोज़ मर के देख ज़रा

उठे जिधर भी नज़र रौशनी उधर जाए
करिश्मे कैसे हैं उस की नज़र के देख ज़रा

मसीहा हो के भी होता नहीं मसीहा कोई
तू ज़ख़्म ज़ख़्म किसी दिन बिखर के देख ज़रा

ख़मोशियों को भी 'तालिब' ज़बान है कि नहीं
सुकूत-ए-दरिया के अंदर उतर के देख ज़रा