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मिरी चश्म-ए-तमाशा अब जहाँ है | शाही शायरी
meri chashm-e-tamasha ab jahan hai

ग़ज़ल

मिरी चश्म-ए-तमाशा अब जहाँ है

जगन्नाथ आज़ाद

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मिरी चश्म-ए-तमाशा अब जहाँ है
तजल्ली कारवाँ दर कारवाँ है

यक़ीं है आख़िरी मंज़िल गुमाँ की
यक़ीं की आख़िरी मंज़िल गुमाँ है

वो मुझ से दूर तो इतने नहीं हैं
फ़क़त इक बे-यक़ीनी दरमियाँ है

ये राज़ अहल-ए-फ़ुग़ाँ पर फ़ाश कर दो
ख़मोशी भी इक अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ है

ये मीर-ए-कारवाँ से कोई कह दे
कि मैं हूँ और तलाश-ए-कारवाँ है