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मिरी बयाज़ को शेरों से तुम सजा देना | शाही शायरी
meri bayaz ko sheron se tum saja dena

ग़ज़ल

मिरी बयाज़ को शेरों से तुम सजा देना

शाइस्ता यूसुफ़

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मिरी बयाज़ को शेरों से तुम सजा देना
मैं एक वहम हूँ मुझ को यक़ीं बना देना

बना के कोई कहानी हमारी हस्ती की
नदी में काग़ज़ी कश्ती कोई बहा देना

बहुत सँभाल के रक्खा है मैं ने फूलों को
जो हो सके इन्हें गुल-दान में सजा देना

चला गया जो कभी लौट कर नहीं आया
मैं लौट आऊँगी मुझ को ज़रा सदा देना

अँधेरा ढूँढता रहता है मेरी परछाईं
जले चराग़ तो चादर मुझे ओढ़ा देना

किताबें सो नहीं पाएँगी मेरे ब'अद कभी
हुआ तू आ के इन्हें लोरियाँ सुना देना

बिखर के रह गई ज़र्रात-ए-ग़म में 'शाइस्ता'
तिरे क़लम से नई शक्ल इक बना देना