मिरी बातों पे दुनिया की हँसी कम होती जाती है
मिरी दीवानगी शायद मुसल्लम होती जाती है
तवज्जोह की नज़र मेरी तरफ़ कम होती जाती है
मैं ख़ुश हूँ इश्क़ की बुनियाद मोहकम होती जाती है
ज़रूरत कुछ भी कहने की बहुत कम होती जाती है
मिरी सूरत ही अब शौक़-ए-मुजस्सम होती जाती है
कभी तू ने पुकारा था मुझे कुछ शक सा होता है
मिरे कानों में इक आवाज़ पैहम होती जाती है
मुझे समझाने आए हैं कि मैं रोने से बाज़ आऊँ
मिरे समझाने वालों की नज़र नम होती जाती है
अभी सुन लो तो शायद सुन सको तुम दिल के नग़्मों को
कि अब उस की सदा कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद कम होती जाती है
वही दिल है मगर अब वो नहीं अगली सी बेताबी
वही ख़ूँ है मगर रफ़्तार मद्धम होती जाती है
तुझे मज़हब मिटाना ही पड़ेगा रू-ए-हस्ती से
तिरे हाथों बहुत तौहीन-ए-आदम होती जाती है
नशात-ए-ज़ीस्त की ज़ामिन है अब याद-ए-मोहब्बत ही
यही ख़ुद इश्क़ के ज़ख़्मों का मरहम होती जाती है
मोहब्बत ही से खोलो तुम दिल-ए-'मुल्ला' का दरवाज़ा
यही इस के लिए अब इस्म-ए-आज़म होती जाती है
ग़ज़ल
मिरी बातों पे दुनिया की हँसी कम होती जाती है
आनंद नारायण मुल्ला