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मिरी बात का जो यक़ीं नहीं मुझे आज़मा के भी देख ले | शाही शायरी
meri baat ka jo yaqin nahin mujhe aazma ke bhi dekh le

ग़ज़ल

मिरी बात का जो यक़ीं नहीं मुझे आज़मा के भी देख ले

आनंद नारायण मुल्ला

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मिरी बात का जो यक़ीं नहीं मुझे आज़मा के भी देख ले
तुझे दिल तो कब का मैं दे चुका उसे ग़म बना के भी देख ले

ये तो ठीक है कि तिरी जफ़ा भी इक अता मिरे वास्ते
मिरी हसरतों की क़सम तुझे कभी मुस्कुरा के भी देख ले

मिरा दिल अलग है बुझा सा कुछ तिरे हुस्न पर भी चमक नहीं
कभी एक मरकज़-ए-ज़ीस्त पर उन्हें साथ ला के भी देख ले

मिरे शौक़ की हैं वही ज़िदें अभी लब पे है वही इल्तिजा
कभी इस जले हुए तूर पर मुझे फिर बुला के भी देख ले

न मिटेगा नक़्श-ए-वफ़ा कभी न मिटेगा हाँ न मिटेगा ये
किसी और की तो मजाल क्या उसे ख़ुद मिटा के भी देख ले

किसी गुल-ए-फ़सुर्दा-ए-बाग़ हूँ मिरे लब हँसी को भुला चुके
तुझे ऐ सबा जो न हो यक़ीं मुझे गुदगुदा के भी देख ले

मिरे दिल में तू ही है जल्वा-गर तिरा आइना हूँ मैं सर-बसर
यूँही दूर ही से नज़र न कर कभी पास आ के भी देख ले

मिरे ज़र्फ़-ए-इश्क़ पे शक न कर मिरे हर्फ़-ए-शौक़ को भूल जा
जो यही हिजाब है दरमियाँ ये हिजाब उठा के भी देख ले

ये जहान है इसे क्या पड़ी है जो ये सुने तिरी दास्ताँ
तुझे फिर भी 'मुल्ला' अगर है ज़िद ग़म-ए-दिल सुना के भी देख ले