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मिरी आँखों से हिजरत का वो मंज़र क्यूँ नहीं जाता | शाही शायरी
meri aankhon se hijrat ka wo manzar kyun nahin jata

ग़ज़ल

मिरी आँखों से हिजरत का वो मंज़र क्यूँ नहीं जाता

प्रबुद्ध सौरभ

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मिरी आँखों से हिजरत का वो मंज़र क्यूँ नहीं जाता
बिछड़ कर भी बिछड़ जाने का ये डर क्यूँ नहीं जाता

अगर ये ज़ख़्म भरना है तो फिर भर क्यूँ नहीं जाता
अगर ये जान-लेवा है तो मैं मर क्यूँ नहीं जाता

अगर तू दोस्त है तो फिर ये ख़ंजर क्यूँ है हाथों में
अगर दुश्मन है तो आख़िर मिरा सर क्यूँ नहीं जाता

बताऊँ किस हवाले से उन्हें बैराग का मतलब
जो तारे पूछते हैं रात को घर क्यूँ नहीं जाता

ज़रा फ़ुर्सत मिले क़िस्मत की चौसर से तो सोचूँगा
कि ख़्वाहिश और हासिल का ये अंतर क्यूँ नहीं जाता

मिरे सारे रक़ीबों ने ज़मीनें छोड़ दीं कब की
मगर अशआर से मेरे वो तेवर क्यूँ नहीं जाता

मुझे बेचैन करते हैं ये दिल के अन-गिनत धब्बे
जो जाता है वो यादों को मिटा कर क्यूँ नहीं जाता