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मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ कुछ भी नहीं है | शाही शायरी
meri aah-o-fughan kuchh bhi nahin hai

ग़ज़ल

मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ कुछ भी नहीं है

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

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मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ कुछ भी नहीं है
जले दिल का धुआँ कुछ भी नहीं है

न तड़पाया किसी ज़ालिम को उस ने
मिरी तर्ज़-ए-बयाँ कुछ भी नहीं है

जहाँ हो बिजलियों का ख़ौफ़ पैहम
सुकून-ए-आशियाँ कुछ भी नहीं है

हर इक शय बन गई शीशे की मानिंद
अब अपने दरमियाँ कुछ भी नहीं है

ख़ुदा गो ज़र्रे ज़र्रे से अयाँ है
मगर ज़र्रा यहाँ कुछ भी नहीं है

जो देखो तो सभी कुछ है जहाँ में
जो समझो तो जहाँ कुछ भी नहीं है

तवानाई की दुनिया में ऐ 'मग़मूम'
बिसात-ए-ना-तवाँ कुछ भी नहीं है