मिरे वजूद से आती है इक सदा मुझ को
कि मेरे जिस्म से कर दे कोई जुदा मुझ को
मिरी तलाश का हासिल फ़क़त तहय्युर है
मैं खो गया हूँ कहाँ ख़ुद नहीं पता मुझ को
मैं अपने जिस्म के अंदर सिमट के बैठा हूँ
बुला रहा है कहीं दूर से ख़ुदा मुझ को
मैं तुझ को देखूँ मगर गुफ़्तुगू न कर पाऊँ
ख़ुदा के वास्ते ऐसी न दे सज़ा मुझ को
वो लहजा अब भी तसव्वुर में गूँजता है 'असर'
वो चेहरा अब भी दिखाता है आईना मुझ को
ग़ज़ल
मिरे वजूद से आती है इक सदा मुझ को
मोहम्मद अली असर